Tuesday, 17 July 2018

काऊ सफारी

-महेश देवनानी

रविवार की सुबह थी, मौसम भी सुहाना था। सेंट्रल पार्क की घास पर रात को हुई बारिश के पानी की बूँदें अभी भी ताजा थी। धूप अभी निकली नहीं थी, शायद बादलों ने निश्चय किया था कि चूँकि आज छुट्टी का दिन है इसलिए धूप को थोड़ी देर और सो लेने दिया जाए। हमेशा की तरह सुबह की सैर से फारिग हो गाँधी, जिन्ना, चर्चिल, और भगत सिंह पार्क की कैंटीन के पीछे खुले एरिया में चार कुर्सियों पर जम चुके थे। मेज पर चार प्यालों में दार्जीलिंग की फाइनेस्ट चाय के साथ एक प्लेट में ओरिओ के बिस्कुट सजे थे। चारों का हर रविवार सुबह को साथ में चाय पीने का क्रम पिछले ५०-५५ सालों से अनवरत जारी है जब से चर्चिल स्वर्ग में आया है।

जिन्ना ने अपनी आदत के अनुसार यह जानते हुए भी कि धुएँ से गाँधी को कोफ़्त होती है अपना सिगार जला कर धुएँ का एक छल्ला हवा में उछाला। वैसे भी जिन्ना को गाँधी को सताने में बड़ा मजा आता है। पर गाँधी का सारा ध्यान सामने के पेड़ पर लगे बया के घोंसले पर अटका था जिसके कारण बड़ी देर से उसके दोनों हाथों से पकड़ा चाय का प्याला होठों तक का सफर तय करने का इंतज़ार कर रहा था। लगता था कि बया की कारीगरी ने गाँधी को मंत्रमुग्ध कर दिया था। चर्चिल आज के 'हेवन टाइम्स' की खबरें पढ़ने में मशगूल था।  बीच-बीच में वो अपने पास की नजर के चश्में को अपनी नाक पर ठीक कर बिना अखबार से नजर हटाए मेज से चाय का प्याला उठाकर चुस्कियाँ लगा रहा था। केवल भगत सिंह ही था जो पूरी तल्लीनता के साथ ओरिओ के दोनों बिस्किट्स को अलग करके बीच की क्रीम को जीभ से चाटने के बाद बिस्किट्स को चाय में डुबो कर खाने का पूरा आनंद ले रहा था।  

"यार ये काऊ-सफारी क्या बला है?" चर्चिल ने अचानक से पूछा "खबर है कि इंडिया की गौशालाओं में काऊ-सफारी होती हैं।" हालाँकि ध्यान अब भी उसका अखबार पर ही था।  

चर्चिल का सवाल सुनते ही भगत सिंह के हाथों की चाय की प्लेट होठों तक पहुँचने से पहले बीच में ही रुक गयी। लगता था भगत सिंह कुछ कहना चाहता था पर फिर विचार बदल गया। चाय की प्लेट होंठों से लगाकर एक ही चुस्की में पूरी चाय खत्म कर भगत सिंह ने चर्चिल को ऐसे देखा जैसे कह रहा हो तू पहले अपने घर की चिंता कर। अभी-अभी बोरिस ने इस्तीफा दिया है, पाउंड की हालत भी खस्ता है, उसपर महारानी की भी उमर हो चली है। स्वर्ग का प्रशासन तो कब से पलक-पाँवड़े बिछाये इंतजार कर रहा है। पर भगत सिंह ने चुप रहना ही बेहतर समझा।  

सवाल सुनकर गाँधी का ध्यान भी बया के घोंसले से हट चुका था। उसने और जिन्ना ने एक दूसरे को देखा और निगाहों-निगाहों में ये फैसला किया की इस नासमझ को जवाब गाँधी ही दे तो अच्छा होगा। गाँधी बोला -"देख भाई, हरिशंकर परसाई को जानते हो ना ? अरे वही फक्कड़ जो सारा दिन मार्क ट्वेन के साथ गर्ल्स हॉस्टल के सामने वाली थड़ी पर बैठा रहता है। उसने एक बार कहा था कि दुनिया भर में गाय दूध देती है पर हिन्दुस्तान में ये वोट देती है।" चाय का कप उठा एक चुस्की खेंच गाँधी ने अपनी बात को आगे बढ़ाया "जिस तरह तुम्हारे गोरे गरीब देशों की झुग्गी-झोपड़ियों में 'हयूमन सफारी' के लिए जाते हैं, उसी तरह आजकल हिन्दुस्तान के शहरी नव-धनाढ्य अपने बच्चों को गाय दिखाने के लिए काऊ-सफारी के लिए ले जाते हैं। गाय के दर्शनों का लाभ ले और गौ-मूत्र का सेवन कर ये श्रद्धालु पुण्य कमाते हैं और गौशाला वाले चाँदी।"

भगत सिंह बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी को रोक पा रहा था। बोला "आज समझ में आया कैश-काऊ शब्द की उत्पत्ति का राज। अब लगे हाथ इस अज्ञानी को काऊ-सेस के बारे में भी बता ही दो।"

सुनकर गाँधी मुस्कुराया और बोला "यहाँ आने से पहले मैं सबको समझा कर आया था कि मदिरापान और माँसाहार का सेवन करना पाप है। इसलिए मेरी प्रिय सरकारों ने मेरी शिक्षाओं पे अमल करते हुए शराब पर काऊ-सेस लगाया है। अर्थात् जो मदिरापान करते हैं वो अपने पापों के प्रायश्चित के रूप में सरकार को काऊ-सेस देते हैं। इसे प्राश्चित कर भी कहा जा सकता है। इस तरह से सरकारों ने काऊ-सेस लगाकर शराबियों पर अहसान किया है।"

"गालिब शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर। या वो जगह बता जहाँ पर खुदा नहीं।....... वाह, वाह!!.....वाह, वाह!!" जिन्ना ने अपनी आदत के अनुसार बिना बात शायरी की टाँग बीच में घुसेड़ी और फिर खुद ही वाह, वाह भी की।  

"और जो गाय का माँस खाते हैं?" चर्चिल ने पूछा। 

"वो और कुछ खाने के लायक नहीं रहते।" इस बार जिन्ना ने जवाब दिया और गाँधी की तरफ अनुमोदन के लिए देखा। गाँधी कुछ नहीं बोला।  

कुछ देर के लिए सन्नाटा था। बात गंभीर होती देख भगत सिंह बोला "छोड़ो ये सब, चलो संजू देखने चलते है, हेवन टाइम्स में बड़ा धाँसू रिव्यु छपा है।"

सुनकर जिन्ना ने टिकिटों की उपलब्धता देखने के लिए अपनी जेब से चाइना मेड मोबाइल निकाला जो उसे उसके परम मित्र माओ ने कुछ दिनों पहले ही भेंट किया था। वैसे भी जिन्ना के घर की अधिकतर चीजें माओ और रेगन ने ही गिफ्ट की हैं।  

"भगत, तुम कुछ भूल रहे हो।" चर्चिल बोला। 

"क्या"

"यही कि हम तीनों को तुम्हारी तरह पलंग के दोनों तरफ से उतरने की आज़ादी नहीं है। हमें हाईकमान की इजाजात लेनी पड़ती है।" कहकर चर्चिल हँस पड़ा।  

"कौन कहता है कि मैं पलंग के दोनों तरफ से उतर सकता हूँ ?" भगत सिंह बोला "सारा पलंग तो अखबारों, किताबों, लैपटॉप और कपड़ो से भरा रहता है। बड़ी मुश्किल से रोज़ रात को थोड़ी सी जगह बना कर सोता हूँ। तुम लोगों को क्या पता कुँवारे आदमी की तकलीफें, बात करते हैं।" कहकर भगत सिंह के चेहरे पे एक कुटिल मुस्कान फैल गई।  

"कुँवारे आदमी की एक तकलीफ बताना तुम फिर भी भूल गए.....फर्श पर इधर-उधर बिखरी हुई हफ्ते भर की जुराबें जो केवल रविवार को ही धुलती हैं।" कहकर गाँधी ने एक जोर का ठहाका लगाया। 

"पर यार एक बात मेरे कभी समझ में नहीं आयी" जिन्ना जो अभी भी टिकटें देख रहा था ने पूछा "तुम दिनभर का बासी अखबार रात को क्यूँ चाटते हो?"

अब ऐसा लग रहा था जैसे तीन शादीशुदा मिलकर बेचारे एक कुँवारे की रैगिंग ले रहे हों।

भगत सिंह बोला "अपना अपना टेस्ट है, पर तुम जैसे रोज़ मसाला-ओट्स का ब्रेकफास्ट करने वाले क्या समझेंगे आलू के परांठे पर मक्खन मारकर खाने का मजा।" हालाँकि इस बात का कोई सिर पैर नहीं था, और ना ही ये किसी को समझ में आई। पर शायद भगत सिंह के पास इस सवाल का कोई जवाब था भी नहीं।

अभी ये बात चल ही रही थी कि पार्क के सामने वाली सड़क पे गायों का एक झुण्ड तालाब की ओर जाता हुआ निकला। जिन्ना ने चुटकी लेते हुए कहा "यार चर्चिल, आज सुबह तो तू कुछ और भी माँग लेता तो मिल जाता तुझे।"

चर्चिल तो कुछ नहीं बोला पर गाँधी ने एक गहरी साँस ली और बोला "ऐसा पता होता तो मैं हिन्दुस्तान के नेताओं के लिए थोड़ी सद्-बुद्धि माँग लेता।" कहकर वो फिर से बया के घोंसले को देखने लगा।

Disclaimer: उपर्युक्त वृत्तांत एक काल्पनिक कृति है और इसके सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक है। इसका किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों (जीवित या मृत) या घटना से कोई संबंध नहीं है। इसका किसी व्यक्ति या व्यक्तियों (जीवित या मृत), या वास्तविक घटना से कोई समानता संयोग मात्र है।

Wednesday, 27 June 2018

मेंढकी को जुखाम

-महेश देवनानी

रात्रि का पहला पहर था। नीले आकाश में बादलों से छन के आती हुई चाँदनी यूँ मालूम होती थी जैसे फोटोथेरेपी मशीन के सफेद कवर से ढके फ्लोरोसेंट बल्ब से आती हुई रौशनी। ताजा ताजा हुई बारिश से भीगी मिट्टी की खुशबू पश्चिम से आती बयार पर सवार हो पास के नाले पर से गुजरकर जब नथुनों में प्रवेश करती थी तो मेडिकल कॉलेज के डिसेक्शन हॉल की याद आ जाती थी। उस पर दूर किसी शादी के डीजे से आती ये स्वरलहरियाँ कानों में शहद घोल रहीं थी - "तेरे गुत्त नु कड़ा सरदारनिए डायमंड दी झांझर पा दांगे ...."।

पर इन सबके बावजूद उसकी आँखों में नींद का नामों-निशां तक न था। आखिर उससे रहा न गया - "पिछले आधे घंटे से देख रही हूँ, कमरे के दस चक्कर लगा चुके हैं आप।  तीन बार फ्रिज खोल कर बिना कुछ किये बंद किया है, क्या चिंता सत्ता रही है स्वामी?" इन्द्राणी ने इन्द्र की बेचैनी देखकर पूछा।

"कुछ नहीं प्रिये, बस यूँ ही, नींद नहीं आ रही। आजकल काम का स्ट्रेस बहुत है। उस पर जीएसटी ने परेशान किया हुआ है" इन्द्र ने टालते हुए कहा।

"देख रही हूँ, इस वर्ष जबसे पृथ्वीलोक पर वर्षाऋतु का आगमन हुआ है, आप खोये खोये से रहते हैं। कई रातों से आप ठीक से सोये भी नहीं हैं। कहीं ये आइकिया के नए बिस्तर के कारण तो नहीं? मैंने तो ५०% डिस्काउंट के चलते आर्डर किया था। इंद्रलोक में डिलीवरी के साथ रेस-३ की दो टिकटें भी फ्री थी, और पॉपकॉर्न पे डिस्काउंट अलग से।"

"नहीं प्रिये, वो तो योगा डे पर कुछ ज्यादा ही जोश दिखा दिया था जिसके कारण रोम रोम में दर्द हो रहा था। ब्रह्माजी को भी न जाने क्या सूझी है, चैन से बैठने नहीं देते। कभी कहते हैं योग करो, तो कभी इंद्रलोक की सफाई। पर तुम्हारा गोमूत्र में च्यवनप्राश मिलाकर पीने वाला फार्मूला कमाल का था। सारा दर्द रफूचक्कर हो गया।"

"आप कौनसा मन लगाकर योग कर रहे थे? मैं देख रही थी, आपका सारा ध्यान तो फोटो खिंचवाने में ही था। सरकारी योजनाओं की खानापूर्ति करने में आप आर्यावर्त के नौकरशाहों से कम थोड़े ही हैं।" ऐसा कहकर इन्द्राणी जोर से खिलखिला उठी। 

"बस ये फोटो खिंचवाने जितना योग करने में ही ये हाल हो गया था।" इन्द्र ने भी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा।

"मुझे तो पहले ही पता था। आपके 'स्टेमिना' के बारे में मुझसे बेहतर कौन जानता है?" कहकर इन्द्राणी ने इन्द्र को प्यार भरी निगाहों से देखा। इन्द्र के होठों पर भी हल्की सी मुस्कान पसर गयी।

कुछ देर के लिए कमरे में सन्नाटा था।  इंद्र ने सोचा चलो जान छूटी। पर इन्द्राणी कहाँ छोड़ने वाली थी - "आजकल आप मुझसे कुछ छुपा रहे हैं। कल आपने व्हाट्सएप्प स्टेटस भी चेंज किया है - 'स्माइल इज द बिगिनिंग ऑफ लव'। सीधा सीधा ही लिख देते - 'हँसी तो फँसी', इसमें इतनी अंग्रेजी झाड़ने की क्या जरूरत थी?" ऐसा कहकर इन्द्राणी ने आइकिया के नए बिस्तर पर अपना मुँह दूसरी तरफ फेर लिया।

इन्द्र समझदार हैं। जानते हैं कि स्त्री की जिज्ञासा को शक में बदलते देर नहीं लगती, सो अपने स्वर में अतिरिक्त मधुरता घोलते हुए बोले - "ऐसी बात नहीं है प्राणप्रिये, आजकल पृथ्वीलोक के मानव ने बड़ा परेशान किया हुआ है। रोज रोज नए हथकंडे, बड़ा प्रेशर है, बस उसी को लेकर मन जरा उदास रहता है।"

इन्द्राणी ने उठकर अपना हाथ इन्द्र के कंधे पर रखा और भोलेपन से पूछा - "इस साल फिर से मुंबई वालों ने बारिश को लेकर आपको ट्विटर पे ट्रोल किया क्या?"

"अरे नहीं।  मुंबई वालों को तो समझ में आ गया है कि उनकी इस हालत के जिम्मेदार बीएमसी, महाराष्ट्र की सरकारें, गलत टाउन प्लानिंग, और बहुत हद तक वे खुद ही हैं। और कोई भी हो पर मैं उनकी इस हालत का जिम्मेदार बिलकुल नहीं हूँ।"

"फिर क्या चिंता है स्वामी?"

इंद्र ने इन्द्राणी के हाथ अपने हाथों में लेकर कहा - "पिछले कुछ वर्षों से मानव के स्वभाव में बड़े अजीब से परिवर्तन देखने में आ रहे हैं। पहले मैं सोचता था कि मानव के विकास के क्रम में वर्तमान मानव सबसे श्रेष्ट और वैज्ञानिक विचारधारा वाला है, परन्तु अब लगता है कि मानव के विकास का पहिया पिछले कुछ वर्षों से उल्टी दिशा में घूम रहा है...."

"...अब देखो ना, मुझे खुश करने के लिए क्या क्या नहीं कर रहे। कुछ दिनों पहले बेचारे मेंढक और मेंढकी को पकड़कर जबरन शादी करवा दी और ये प्रचारित किया कि ऐसा करने से मैं खुश होकर बारिश कर दूंगा। अरे भाई, मुझे खुश करना है तो सलमान की शादी करवाओ न।" ऐसा कहकर इन्द्र की आँखे चमक उठी।

"वैसे पृथ्वीलोक पर मेंढक की शादी की कानूनी उम्र क्या है?" इन्द्राणी ने शरारत भरे अंदाज़ से पूछा और दोनों ठहाका लगाकर हंस पड़े।

इंद्र ने आगे कहा -"मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता ऐसे ढकोसलों से। पर मेरी चिंता ये है कि इन चोंचलों से लोगों का ध्यान वर्षा न होने के असली कारणों से भटकाया जा रहा है। मानव को यदि अपनी आने वाली नस्लों के लिए पृथ्वी को बचाये रखना है तो ग्लोबल वार्मिंग, ग्रीन हाउस गैसेज,अक्षय ऊर्जा इत्यादि पर और अधिक ध्यान देना चाहिए, ना कि मेंढकों की शादी पर।"

"ह्म्मम्म्म्म....." इन्द्राणी ने एक गहरी साँस भरी और बोली - "मानव को सुधारने का कोई फार्मूला है आपके पास?" और कुछ क्षणों पश्चात खुद ही जवाब दिया "नहीं ना, तो फिर रात बहुत हो गयी है, आप भी सो जाएँ और मुझे भी सोने दे। कल सुबह सरस्वती भाभी के साथ जुम्बा क्लासेज जाना है।" कहकर इन्द्राणी ने लाइट बंद की और सो गयी। पर इंद्र का बेचैन दिमाग अब भी सोच रहा था कि बेचारा मेंढक ही क्यों? 

रात्रि का दूसरा पहर था। चाँद भी थक कर बादलों की ओट में सो गया था। मंद-मंद बहती पवन से यदा-कदा कुछ शाखों के टकराने की ध्वनि रात के सन्नाटे में एकमात्र व्यावधान थी। शादी का डीजे भी बंद हो गया था, जिसका मतलब था कि मेंढक-मेंढकी की शादी के बाराती नाच-गा कर अपने अपने घरों को प्रस्थान कर चुके थे।

Monday, 21 May 2018

जालिम ज़माना

-महेश देवनानी

"वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन,
उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा।"

साहिर ने शायद ही कभी सोचा होगा कि आशिक़ों की मजबूरियों को बयां करता यह शेर, कभी भारतीय राजनीति पर भी सटीक बैठेगा। वैसे ठीक भी है, अगर अंगूर खट्टे हों तो लड़की के बाप के साथ खड़े होकर बारात का स्वागत करने में ही भलाई है। तो हुज़ूर-ए-आला, अपने 'येड्डी सर' ने भी अटल-पथ पर चलते हुए प्रदेश हित में शहादत का केसरिया बाना धारण कर लिया है। उनके इस अदम्य साहस के लिए एक-आधा पदक तो बनता ही है।  

वैसे कुछ दिलजलों का कहना है कि असली आशिक़ तो वो है जो कभी भी हार नहीं माने। माशूका भले ही जवाब न दे, पर दिन में 8-10 व्हाट्सएप्प शायरियाँ और गुड मॉर्निंग/इवनिंग/नाईट मैसेज तब तक भेजता रहे जब तक कि वो उसे ब्लॉक न कर दे। असली आशिक़ का मोटो होना चाहिए: "तू हाँ कर या ना कर, तू है मेरा कर्नाटक"। धिक्कार है ऐसे नाकाम आशिक़ पर जो अपनी महबूबा के लिए 8-10 घोड़ों का इंतज़ाम भी नहीं कर पाया। वो भी तब, जब देश के सबसे बड़े काऊबॉय (चरवाहा नहीं, गौ-पुत्र) का आशीर्वाद उसके साथ था। बताया ये भी जा रहा है कि गौ-पुत्र महबूबा से मिलने वादियों में निकल गए थे जहाँ नेटवर्क कमजोर था, इससे भी गुड़-गोबर हो गया।

देखा जाये तो 'येड्डी सर' के साथ बहुत नाइंसाफी हुई है। मोस्ट एलिजिबल दूल्हा सज-धज कर 104 बारातियों के साथ तोरण मारने को तलवार हाथ में लेकर तैयार था, पर एन-वक़्त पर दुल्हनिया दूसरे आशिक़ के साथ घोड़े पे भाग गई। घोर कलयुग है, घोर कलयुग। पैसे देकर भी चीज़ नहीं मिल रही। घोड़े बिकने को तैयार थे, खरीददार मुहमाँगा दाम देने को तैयार थे, जीएसटी और इन्कम-टैक्स का भी कोई पंगा नहीं, पर "हाए हाए ये ज़ालिम ज़माना"। सहगल से लेकर आज तक ये ज़माना दो मुहब्बत करने वालों के बीच दीवार बनकर खड़ा हो जाता है। ऊपर से ये "रिसोर्ट" नाम की बीमारी भारतीय राजनीति में घर कर गयी है। जानकार बताते हैं कि ये आधुनिक युग का अस्तबल है जहाँ घोड़ों को स्वर्ग सरीखी सुख-सुविधाएं प्रदान की जाती हैं ताकि 'चाणक्य के चेले' उन तक नहीं पहुँच पाएं।

इस पूरे प्रकरण में "रिसोर्ट", राजनीती-शास्त्र के चितेरों के लिए एक नई चुनौती के तौर पे उभरा है। सोशल मीडिया मैनेजमेंट के महारथी भी अभी तक इसका एन्टीडोट तैयार नहीं कर पाए हैं। यद्यपि सभी लोग इस बात से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते। 'खरीद-फरोख्त यूनिवर्सिटी' के एक सीनियर प्रोफेसर ने नागपुर से बताया कि असली चुनौती तो "न्याय का सर्वोच्च मंदिर" है जिसने महामहिम के 'मैरिज-प्लान' पर भांजी मार दी। लोकतंत्र के इस स्तम्भ को चाणक्य अभी तक 'मैनेज' करने में असफल रहा है। 

वैसे जो शादी होने वाली है, उसके टिकाऊ होने पर भी संदेह हैं। बताया जा रहा है कि लड़के-लड़की की कुंडली ही नहीं मिलती। छत्तीस में से केवल दो गुण मिलते हैं:- 1) अवसरवादिता, 2) सत्ताभोग। उस पर लड़का डबल मांगलिक है - यानि दूसरी बार घोड़ी पर चढ़ रहा है। इसके अलावा 117 घोड़ों के 'खान-पान' की व्यवस्था करना भी एक टेढ़ी खीर है। अब देखना यह है कि जनपथ से बनके आया "डाइट-प्लान" कितने समय तक घोड़ों की सेहत का ख़्याल रख पाता है। इस बीच कुछ घोड़ों को अगर बेहतर डाइट ऑफर हुई, तो शादी टूट भी सकती है। 

खैर, लोकतंत्र की किस्मत में गर ये खेल लिखा है, तो फिर लीजिये मज़ा। आप जनता-जनार्दन हैं, वोट का झुनझुना बजाइये। इससे ज्यादा आप और क्या उखाड़ लोगे?

इस बीच खबर है कि 'येड्डी सर' शादी में कैरिओके पे गाने की रिहर्सल कर रहे हैं:-"मुझसे कह दे मैं तेरा हाथ किसे पेश करूँ......रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ।"

शादी मुबारक!!!