-महेश देवनानी
रविवार की सुबह थी, मौसम भी सुहाना था। सेंट्रल पार्क की घास पर रात को हुई बारिश के पानी की बूँदें अभी भी ताजा थी। धूप अभी निकली नहीं थी, शायद बादलों ने निश्चय किया था कि चूँकि आज छुट्टी का दिन है इसलिए धूप को थोड़ी देर और सो लेने दिया जाए। हमेशा की तरह सुबह की सैर से फारिग हो गाँधी, जिन्ना, चर्चिल, और भगत सिंह पार्क की कैंटीन के पीछे खुले एरिया में चार कुर्सियों पर जम चुके थे। मेज पर चार प्यालों में दार्जीलिंग की फाइनेस्ट चाय के साथ एक प्लेट में ओरिओ के बिस्कुट सजे थे। चारों का हर रविवार सुबह को साथ में चाय पीने का क्रम पिछले ५०-५५ सालों से अनवरत जारी है जब से चर्चिल स्वर्ग में आया है।
जिन्ना ने अपनी आदत के अनुसार यह जानते हुए भी कि धुएँ से गाँधी को कोफ़्त होती है अपना सिगार जला कर धुएँ का एक छल्ला हवा में उछाला। वैसे भी जिन्ना को गाँधी को सताने में बड़ा मजा आता है। पर गाँधी का सारा ध्यान सामने के पेड़ पर लगे बया के घोंसले पर अटका था जिसके कारण बड़ी देर से उसके दोनों हाथों से पकड़ा चाय का प्याला होठों तक का सफर तय करने का इंतज़ार कर रहा था। लगता था कि बया की कारीगरी ने गाँधी को मंत्रमुग्ध कर दिया था। चर्चिल आज के 'हेवन टाइम्स' की खबरें पढ़ने में मशगूल था। बीच-बीच में वो अपने पास की नजर के चश्में को अपनी नाक पर ठीक कर बिना अखबार से नजर हटाए मेज से चाय का प्याला उठाकर चुस्कियाँ लगा रहा था। केवल भगत सिंह ही था जो पूरी तल्लीनता के साथ ओरिओ के दोनों बिस्किट्स को अलग करके बीच की क्रीम को जीभ से चाटने के बाद बिस्किट्स को चाय में डुबो कर खाने का पूरा आनंद ले रहा था।
"यार ये काऊ-सफारी क्या बला है?" चर्चिल ने अचानक से पूछा "खबर है कि इंडिया की गौशालाओं में काऊ-सफारी होती हैं।" हालाँकि ध्यान अब भी उसका अखबार पर ही था।
चर्चिल का सवाल सुनते ही भगत सिंह के हाथों की चाय की प्लेट होठों तक पहुँचने से पहले बीच में ही रुक गयी। लगता था भगत सिंह कुछ कहना चाहता था पर फिर विचार बदल गया। चाय की प्लेट होंठों से लगाकर एक ही चुस्की में पूरी चाय खत्म कर भगत सिंह ने चर्चिल को ऐसे देखा जैसे कह रहा हो तू पहले अपने घर की चिंता कर। अभी-अभी बोरिस ने इस्तीफा दिया है, पाउंड की हालत भी खस्ता है, उसपर महारानी की भी उमर हो चली है। स्वर्ग का प्रशासन तो कब से पलक-पाँवड़े बिछाये इंतजार कर रहा है। पर भगत सिंह ने चुप रहना ही बेहतर समझा।
सवाल सुनकर गाँधी का ध्यान भी बया के घोंसले से हट चुका था। उसने और जिन्ना ने एक दूसरे को देखा और निगाहों-निगाहों में ये फैसला किया की इस नासमझ को जवाब गाँधी ही दे तो अच्छा होगा। गाँधी बोला -"देख भाई, हरिशंकर परसाई को जानते हो ना ? अरे वही फक्कड़ जो सारा दिन मार्क ट्वेन के साथ गर्ल्स हॉस्टल के सामने वाली थड़ी पर बैठा रहता है। उसने एक बार कहा था कि दुनिया भर में गाय दूध देती है पर हिन्दुस्तान में ये वोट देती है।" चाय का कप उठा एक चुस्की खेंच गाँधी ने अपनी बात को आगे बढ़ाया "जिस तरह तुम्हारे गोरे गरीब देशों की झुग्गी-झोपड़ियों में 'हयूमन सफारी' के लिए जाते हैं, उसी तरह आजकल हिन्दुस्तान के शहरी नव-धनाढ्य अपने बच्चों को गाय दिखाने के लिए काऊ-सफारी के लिए ले जाते हैं। गाय के दर्शनों का लाभ ले और गौ-मूत्र का सेवन कर ये श्रद्धालु पुण्य कमाते हैं और गौशाला वाले चाँदी।"
भगत सिंह बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी को रोक पा रहा था। बोला "आज समझ में आया कैश-काऊ शब्द की उत्पत्ति का राज। अब लगे हाथ इस अज्ञानी को काऊ-सेस के बारे में भी बता ही दो।"
सुनकर गाँधी मुस्कुराया और बोला "यहाँ आने से पहले मैं सबको समझा कर आया था कि मदिरापान और माँसाहार का सेवन करना पाप है। इसलिए मेरी प्रिय सरकारों ने मेरी शिक्षाओं पे अमल करते हुए शराब पर काऊ-सेस लगाया है। अर्थात् जो मदिरापान करते हैं वो अपने पापों के प्रायश्चित के रूप में सरकार को काऊ-सेस देते हैं। इसे प्राश्चित कर भी कहा जा सकता है। इस तरह से सरकारों ने काऊ-सेस लगाकर शराबियों पर अहसान किया है।"
"गालिब शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर। या वो जगह बता जहाँ पर खुदा नहीं।....... वाह, वाह!!.....वाह, वाह!!" जिन्ना ने अपनी आदत के अनुसार बिना बात शायरी की टाँग बीच में घुसेड़ी और फिर खुद ही वाह, वाह भी की।
"और जो गाय का माँस खाते हैं?" चर्चिल ने पूछा।
"वो और कुछ खाने के लायक नहीं रहते।" इस बार जिन्ना ने जवाब दिया और गाँधी की तरफ अनुमोदन के लिए देखा। गाँधी कुछ नहीं बोला।
कुछ देर के लिए सन्नाटा था। बात गंभीर होती देख भगत सिंह बोला "छोड़ो ये सब, चलो संजू देखने चलते है, हेवन टाइम्स में बड़ा धाँसू रिव्यु छपा है।"
सुनकर जिन्ना ने टिकिटों की उपलब्धता देखने के लिए अपनी जेब से चाइना मेड मोबाइल निकाला जो उसे उसके परम मित्र माओ ने कुछ दिनों पहले ही भेंट किया था। वैसे भी जिन्ना के घर की अधिकतर चीजें माओ और रेगन ने ही गिफ्ट की हैं।
"भगत, तुम कुछ भूल रहे हो।" चर्चिल बोला।
"क्या"
"यही कि हम तीनों को तुम्हारी तरह पलंग के दोनों तरफ से उतरने की आज़ादी नहीं है। हमें हाईकमान की इजाजात लेनी पड़ती है।" कहकर चर्चिल हँस पड़ा।
"कौन कहता है कि मैं पलंग के दोनों तरफ से उतर सकता हूँ ?" भगत सिंह बोला "सारा पलंग तो अखबारों, किताबों, लैपटॉप और कपड़ो से भरा रहता है। बड़ी मुश्किल से रोज़ रात को थोड़ी सी जगह बना कर सोता हूँ। तुम लोगों को क्या पता कुँवारे आदमी की तकलीफें, बात करते हैं।" कहकर भगत सिंह के चेहरे पे एक कुटिल मुस्कान फैल गई।
"कुँवारे आदमी की एक तकलीफ बताना तुम फिर भी भूल गए.....फर्श पर इधर-उधर बिखरी हुई हफ्ते भर की जुराबें जो केवल रविवार को ही धुलती हैं।" कहकर गाँधी ने एक जोर का ठहाका लगाया।
"पर यार एक बात मेरे कभी समझ में नहीं आयी" जिन्ना जो अभी भी टिकटें देख रहा था ने पूछा "तुम दिनभर का बासी अखबार रात को क्यूँ चाटते हो?"
अब ऐसा लग रहा था जैसे तीन शादीशुदा मिलकर बेचारे एक कुँवारे की रैगिंग ले रहे हों।
भगत सिंह बोला "अपना अपना टेस्ट है, पर तुम जैसे रोज़ मसाला-ओट्स का ब्रेकफास्ट करने वाले क्या समझेंगे आलू के परांठे पर मक्खन मारकर खाने का मजा।" हालाँकि इस बात का कोई सिर पैर नहीं था, और ना ही ये किसी को समझ में आई। पर शायद भगत सिंह के पास इस सवाल का कोई जवाब था भी नहीं।
अभी ये बात चल ही रही थी कि पार्क के सामने वाली सड़क पे गायों का एक झुण्ड तालाब की ओर जाता हुआ निकला। जिन्ना ने चुटकी लेते हुए कहा "यार चर्चिल, आज सुबह तो तू कुछ और भी माँग लेता तो मिल जाता तुझे।"
चर्चिल तो कुछ नहीं बोला पर गाँधी ने एक गहरी साँस ली और बोला "ऐसा पता होता तो मैं हिन्दुस्तान के नेताओं के लिए थोड़ी सद्-बुद्धि माँग लेता।" कहकर वो फिर से बया के घोंसले को देखने लगा।
Disclaimer: उपर्युक्त वृत्तांत एक काल्पनिक कृति है और इसके सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक है। इसका किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों (जीवित या मृत) या घटना से कोई संबंध नहीं है। इसका किसी व्यक्ति या व्यक्तियों (जीवित या मृत), या वास्तविक घटना से कोई समानता संयोग मात्र है।
रविवार की सुबह थी, मौसम भी सुहाना था। सेंट्रल पार्क की घास पर रात को हुई बारिश के पानी की बूँदें अभी भी ताजा थी। धूप अभी निकली नहीं थी, शायद बादलों ने निश्चय किया था कि चूँकि आज छुट्टी का दिन है इसलिए धूप को थोड़ी देर और सो लेने दिया जाए। हमेशा की तरह सुबह की सैर से फारिग हो गाँधी, जिन्ना, चर्चिल, और भगत सिंह पार्क की कैंटीन के पीछे खुले एरिया में चार कुर्सियों पर जम चुके थे। मेज पर चार प्यालों में दार्जीलिंग की फाइनेस्ट चाय के साथ एक प्लेट में ओरिओ के बिस्कुट सजे थे। चारों का हर रविवार सुबह को साथ में चाय पीने का क्रम पिछले ५०-५५ सालों से अनवरत जारी है जब से चर्चिल स्वर्ग में आया है।
जिन्ना ने अपनी आदत के अनुसार यह जानते हुए भी कि धुएँ से गाँधी को कोफ़्त होती है अपना सिगार जला कर धुएँ का एक छल्ला हवा में उछाला। वैसे भी जिन्ना को गाँधी को सताने में बड़ा मजा आता है। पर गाँधी का सारा ध्यान सामने के पेड़ पर लगे बया के घोंसले पर अटका था जिसके कारण बड़ी देर से उसके दोनों हाथों से पकड़ा चाय का प्याला होठों तक का सफर तय करने का इंतज़ार कर रहा था। लगता था कि बया की कारीगरी ने गाँधी को मंत्रमुग्ध कर दिया था। चर्चिल आज के 'हेवन टाइम्स' की खबरें पढ़ने में मशगूल था। बीच-बीच में वो अपने पास की नजर के चश्में को अपनी नाक पर ठीक कर बिना अखबार से नजर हटाए मेज से चाय का प्याला उठाकर चुस्कियाँ लगा रहा था। केवल भगत सिंह ही था जो पूरी तल्लीनता के साथ ओरिओ के दोनों बिस्किट्स को अलग करके बीच की क्रीम को जीभ से चाटने के बाद बिस्किट्स को चाय में डुबो कर खाने का पूरा आनंद ले रहा था।
"यार ये काऊ-सफारी क्या बला है?" चर्चिल ने अचानक से पूछा "खबर है कि इंडिया की गौशालाओं में काऊ-सफारी होती हैं।" हालाँकि ध्यान अब भी उसका अखबार पर ही था।
चर्चिल का सवाल सुनते ही भगत सिंह के हाथों की चाय की प्लेट होठों तक पहुँचने से पहले बीच में ही रुक गयी। लगता था भगत सिंह कुछ कहना चाहता था पर फिर विचार बदल गया। चाय की प्लेट होंठों से लगाकर एक ही चुस्की में पूरी चाय खत्म कर भगत सिंह ने चर्चिल को ऐसे देखा जैसे कह रहा हो तू पहले अपने घर की चिंता कर। अभी-अभी बोरिस ने इस्तीफा दिया है, पाउंड की हालत भी खस्ता है, उसपर महारानी की भी उमर हो चली है। स्वर्ग का प्रशासन तो कब से पलक-पाँवड़े बिछाये इंतजार कर रहा है। पर भगत सिंह ने चुप रहना ही बेहतर समझा।
सवाल सुनकर गाँधी का ध्यान भी बया के घोंसले से हट चुका था। उसने और जिन्ना ने एक दूसरे को देखा और निगाहों-निगाहों में ये फैसला किया की इस नासमझ को जवाब गाँधी ही दे तो अच्छा होगा। गाँधी बोला -"देख भाई, हरिशंकर परसाई को जानते हो ना ? अरे वही फक्कड़ जो सारा दिन मार्क ट्वेन के साथ गर्ल्स हॉस्टल के सामने वाली थड़ी पर बैठा रहता है। उसने एक बार कहा था कि दुनिया भर में गाय दूध देती है पर हिन्दुस्तान में ये वोट देती है।" चाय का कप उठा एक चुस्की खेंच गाँधी ने अपनी बात को आगे बढ़ाया "जिस तरह तुम्हारे गोरे गरीब देशों की झुग्गी-झोपड़ियों में 'हयूमन सफारी' के लिए जाते हैं, उसी तरह आजकल हिन्दुस्तान के शहरी नव-धनाढ्य अपने बच्चों को गाय दिखाने के लिए काऊ-सफारी के लिए ले जाते हैं। गाय के दर्शनों का लाभ ले और गौ-मूत्र का सेवन कर ये श्रद्धालु पुण्य कमाते हैं और गौशाला वाले चाँदी।"
भगत सिंह बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी को रोक पा रहा था। बोला "आज समझ में आया कैश-काऊ शब्द की उत्पत्ति का राज। अब लगे हाथ इस अज्ञानी को काऊ-सेस के बारे में भी बता ही दो।"
सुनकर गाँधी मुस्कुराया और बोला "यहाँ आने से पहले मैं सबको समझा कर आया था कि मदिरापान और माँसाहार का सेवन करना पाप है। इसलिए मेरी प्रिय सरकारों ने मेरी शिक्षाओं पे अमल करते हुए शराब पर काऊ-सेस लगाया है। अर्थात् जो मदिरापान करते हैं वो अपने पापों के प्रायश्चित के रूप में सरकार को काऊ-सेस देते हैं। इसे प्राश्चित कर भी कहा जा सकता है। इस तरह से सरकारों ने काऊ-सेस लगाकर शराबियों पर अहसान किया है।"
"गालिब शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर। या वो जगह बता जहाँ पर खुदा नहीं।....... वाह, वाह!!.....वाह, वाह!!" जिन्ना ने अपनी आदत के अनुसार बिना बात शायरी की टाँग बीच में घुसेड़ी और फिर खुद ही वाह, वाह भी की।
"और जो गाय का माँस खाते हैं?" चर्चिल ने पूछा।
"वो और कुछ खाने के लायक नहीं रहते।" इस बार जिन्ना ने जवाब दिया और गाँधी की तरफ अनुमोदन के लिए देखा। गाँधी कुछ नहीं बोला।
कुछ देर के लिए सन्नाटा था। बात गंभीर होती देख भगत सिंह बोला "छोड़ो ये सब, चलो संजू देखने चलते है, हेवन टाइम्स में बड़ा धाँसू रिव्यु छपा है।"
सुनकर जिन्ना ने टिकिटों की उपलब्धता देखने के लिए अपनी जेब से चाइना मेड मोबाइल निकाला जो उसे उसके परम मित्र माओ ने कुछ दिनों पहले ही भेंट किया था। वैसे भी जिन्ना के घर की अधिकतर चीजें माओ और रेगन ने ही गिफ्ट की हैं।
"भगत, तुम कुछ भूल रहे हो।" चर्चिल बोला।
"क्या"
"यही कि हम तीनों को तुम्हारी तरह पलंग के दोनों तरफ से उतरने की आज़ादी नहीं है। हमें हाईकमान की इजाजात लेनी पड़ती है।" कहकर चर्चिल हँस पड़ा।
"कौन कहता है कि मैं पलंग के दोनों तरफ से उतर सकता हूँ ?" भगत सिंह बोला "सारा पलंग तो अखबारों, किताबों, लैपटॉप और कपड़ो से भरा रहता है। बड़ी मुश्किल से रोज़ रात को थोड़ी सी जगह बना कर सोता हूँ। तुम लोगों को क्या पता कुँवारे आदमी की तकलीफें, बात करते हैं।" कहकर भगत सिंह के चेहरे पे एक कुटिल मुस्कान फैल गई।
"कुँवारे आदमी की एक तकलीफ बताना तुम फिर भी भूल गए.....फर्श पर इधर-उधर बिखरी हुई हफ्ते भर की जुराबें जो केवल रविवार को ही धुलती हैं।" कहकर गाँधी ने एक जोर का ठहाका लगाया।
"पर यार एक बात मेरे कभी समझ में नहीं आयी" जिन्ना जो अभी भी टिकटें देख रहा था ने पूछा "तुम दिनभर का बासी अखबार रात को क्यूँ चाटते हो?"
अब ऐसा लग रहा था जैसे तीन शादीशुदा मिलकर बेचारे एक कुँवारे की रैगिंग ले रहे हों।
भगत सिंह बोला "अपना अपना टेस्ट है, पर तुम जैसे रोज़ मसाला-ओट्स का ब्रेकफास्ट करने वाले क्या समझेंगे आलू के परांठे पर मक्खन मारकर खाने का मजा।" हालाँकि इस बात का कोई सिर पैर नहीं था, और ना ही ये किसी को समझ में आई। पर शायद भगत सिंह के पास इस सवाल का कोई जवाब था भी नहीं।
अभी ये बात चल ही रही थी कि पार्क के सामने वाली सड़क पे गायों का एक झुण्ड तालाब की ओर जाता हुआ निकला। जिन्ना ने चुटकी लेते हुए कहा "यार चर्चिल, आज सुबह तो तू कुछ और भी माँग लेता तो मिल जाता तुझे।"
चर्चिल तो कुछ नहीं बोला पर गाँधी ने एक गहरी साँस ली और बोला "ऐसा पता होता तो मैं हिन्दुस्तान के नेताओं के लिए थोड़ी सद्-बुद्धि माँग लेता।" कहकर वो फिर से बया के घोंसले को देखने लगा।
Disclaimer: उपर्युक्त वृत्तांत एक काल्पनिक कृति है और इसके सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक है। इसका किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों (जीवित या मृत) या घटना से कोई संबंध नहीं है। इसका किसी व्यक्ति या व्यक्तियों (जीवित या मृत), या वास्तविक घटना से कोई समानता संयोग मात्र है।